
ज्ञान, भक्ति और आध्यात्मिक मार्गदर्शन
एक लड़का था, उसने अपनी ज़िन्दगी में सबकुछ पाया था—एक अच्छी नौकरी, खुशहाल घर. लेकिन उसकी माँ घर के किसी कोने में अकेली पड़ी रहती। लड़का कभी नहीं पूछता कि माँ ने खाना खाया या नहीं, दवाई ली या नहीं। उसे बस अपनी ज़िन्दगी से मतलब था। माँ भी चुपचाप सहन कर लेती थी. फिर एक दिन माँ अचानक बिस्तर से उठ न सकी। लड़के ने उसे अस्पताल में भर्ती कराया, लेकिन डॉक्टर ने कहा, "बहुत देर हो चुकी है।" माँ ने अस्पताल में आखिरी साँस ली. बेटा रोते हुए माँ से लिपट गया. उसे अहसास हो रहा था वह अपनी माँ का ख्याल नहीं रख पाया. रोते बिलखते हुए शमशान में माँ का क्रिया कर्म कर वह घर आया। उसे अजीब सा खालीपन महसूस होने लगा। वह माँ के कमरे में गया। उसकी पुरानी, जर्जर अलमारी के पास बैठा। तभी उसकी नज़र टेबल की दराज पर पड़ी, जिसमें एक चिट्ठी रखी थी। उसने चिट्ठी खोली। माँ के आखिरी शब्द थे: "बेटा, जब भी तू रोता है, तुझे हमेशा सर्दी हो जाती है। अब मैं नहीं हूँ, लेकिन तेरे लिए कुछ गोलियाँ दराज में रखी हैं। ये खा लेना, तुझे सर्दी नहीं होगी।" बेटे के हाथ से चिट्ठी गिर गई और उसकी आँखों से आँसू छलक पड़े। माँ तो हमेशा उसकी चिंता में जीती रही। अब वो आँसुओं के साथ अकेला खड़ा था, और माँ के प्यार का एहसास उसकी धड़कनों में एक दर्द बनकर धड़कने लगा। हमारे अपने, हमारे पूर्वज हमसे दूर रह कर भी हमारी चिंता करते है. श्राद्ध पक्ष के इन 16 दिनों में हम उनका स्मरण तो कर ही सकते है. सही लगे तो शेयर अवश्य करें श्री शिवाय नमस्तुभ्यम
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